आधे अधूरे सच के साथ
जिंदगी जीते हैं
या
छलते हैं खुद को
कभी सोच के देखा है?
किसी पार्क की कोनें में
बैठ कर
जिंदगी के तानें -बानें बुनना
कितना आसान होता है
और कितना मुश्किल होता है-
हकीकत का सामना करना
सड़क में हाथ फैलाये
मासूम हाथों में चन्द सिक्के ड़ाल
या
अनदेखा कर चले जाना
घर में
बच्चे के हाथों में टाफी पकड़ा
गोदी में उठा ,सीने से लगा
सुखद अनुभूति में खोना
दोनों में अंतर या समानता का बोध
कभी प्रश्न बनके
अंतरमन के
गलियारे से गुजरा
मानवता के महान शिखर में
खुद को खड़ा करते वक्त
पड़ोस के गलियारे में
बूढी हड्डियों को समेटे
रास्ता पार करते आदमी को
अनदेखा कर
पिता के गुठनों के दर्द से
परेशान
आधी रात
डाक्टर के दरवाजे में
अपने हाथों
की
दस्तक की थाप में
उस लाचार के पदों की
आवाज की गूँज
सुनायी दी
उत्तर देना है
हाँ या न में
खुद को
जीवन की परिक्षा में
उत्तीर्ण करनें के लिये
विजय
दस्तक की थाप में
जवाब देंहटाएंउस लाचार के पदों की
आवाज की गूँज
सुनायी दी
उत्तर देना है
हाँ या न में
खुद को
जीवन की परिक्षा में
उत्तीर्ण करनें के लिये
बहुत ही भावनात्मक सुंदर रचना,....विजय जी...
रचना पढकर आपकी,मन में उठी तकरीर,
लिखेगें कुछ"विरह"पर लिख दिया गंभीर!
sundar vhaav.
जवाब देंहटाएंमानवीय सरोकारों पर अब अधिकतर जगह चुप्पी है,आपका आभार !
जवाब देंहटाएंwah.....bahot khoobsurat.
जवाब देंहटाएंजीवन आधा अधूरा सच ही है ...जब तक उसे परमार्थ में न जिया जाये....
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंभावनात्मक रचना....विजय जी..बहुत अच्छी रचना पढ़ने को मिली
जवाब देंहटाएंBahut hi Sundar prastuti. Mere post par aapka intazar rahega. Dhanyavad.
जवाब देंहटाएंलगे रहो
जवाब देंहटाएं